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Jun 28, 2011

ज़िंदगी का तमाशा

जो मुझे जलाते रहे ,
दिवाली की ख़ुशी पाते रहे ,
मेरी खुशियों से मेरा नाता तोड़ 
हर चोट पर मेरी , मुस्कुराते रहे 

मुझे कहा  गया ...
ज़िंदगी का तमाशा यही .....
फलसफा यही ...
जो लगे है आशा की किरण ,
वही तो निराशा है ...

आगे बढ़ने के ख्याल से सब छुटा ,
हम दुनिया  में रहकर ,
यकीं लोगो पर करते रहे ,
 और उलझाने अपनी बढ़ाते रहे ,

दर्द के बाज़ार से कुछ यूँ रहा ,
रिश्ता अपना ,
दस्तूर में रह कर ... दस्तूर निभाते रहे ,
खुशी देते रहे ....और गम अपनाते रहे |
मुझे अब आदत सी  हुई ,
आजमाइश की , तो ,
कत्ल करते रहे , आसूं भी बहाते रहे |

लोग आये तमाशा देखकर बोले ,
" अदा  खूब आती है " ,
कोई उनसे जाकर तो कहे ,
ये मेरी " पहचान " ना थी ,
ये ज़माने के ही रिवाज थे ,
जो ज़माने पर लुटाते रहे |



By : Anjali Maahil 

Jun 8, 2011

समझौता

दूर क्षितिज को निहारते हुए 
एकाएक एक शब्द उभरा 
था तो बड़ा कठिन शब्द 
पर सबसे सरल उपाय /जवाब 
था ज़िन्दगी का 
" समझौता  "
हल , अनसुलझे  असंख्य प्रश्नों का 
और सबसे खामोश उपाय 
उलझे रिश्तों के तारों का 
मैं भी समझौते की ज़िन्दगी 
में एक कड़ी ,
बंधी हुई , जुडी हुई 
मगर आज तक जो समझी नही 
समझौता होता क्या हैं ?
समझौता होता क्यूँ  हैं ?

मनुष्य ,
डटकर हैं लड़ता 
आदि से मध्य तक 
फिर थकता हैं 
अंत हैं ही में क्यों कभी ?
हिम्मत होती नही खुद में ,
दोष औरो को देकर 
फिर रोता है क्यों कभी ?
मनुष्य ज़िन्दगी में 
समझौता करता हैं , क्यों कभी ?

टूटता जब कभी , तब थामता  कुछ क्यों नहीं 
रखता हैं हाथ सामने ,फिर मांगता कुछ क्यों नहीं 
जब वो हैं उदास ,तो फरेब का हँसता  क्यों  हैं?
मनुष्य ज़िन्दगी में
समझौता करता हैं क्यों कभी ?

चित्रकार को सब रंग ,फीके लगने लगे 
लगने लगे सब को , अपने ही घोसले पराये क्यों 
कुछ भी होता नही किसी का , ज़माने मैं 
तो  " सब हैं मेरा " ऐसा कहता क्यों हैं , रोता क्यों हैं ?
मनुष्य ज़िन्दगी में
समझौता करता हैं क्यों कभी ?

रखता हैं हकीकत , अपनी सामने 
पर बताता कुछ क्यों नही , छुपता हैं ये सोचकर 
ज़माने से ,क्या होगा 
जानकर रहस्य मेरा , अनूठा हैं अजीब हैं 
मनुष्य ज़िन्दगी में
समझौता करता हैं क्यों कभी ?

इसपर उसका जवाब आया ---
" नही करता हूँ मैं 
समझौता कभी 
जीता हूँ ज़िन्दगी ,भरपूर ख़ुशी में 
शिकन नही होती ,चेहरे पर और 
मेरे रंग सारे हैं वही 
ज़िन्दगी किताब बनी मेरी 

लिखता हूँ इसपर, मगर 
मैं कुछ भी नही " ,

माना ज़िन्दगी समझौता बनी 
एक से दुसरे , दुसरे से तीसरे ,
समझौतों से गुथी ,
मेरे जवाब सारे वही पर रह गये ,
सवाल सारे वहीँ रह गये !


मनुष्य ज़िन्दगी में
समझौता करता हैं क्यों कभी ? 


BY: Anjali Maahil 

Jun 3, 2011

स्पंदन :अहसास

"वो जो कहते हैं मुझे ,
अहसास नही होता ,
शायद वो  सच ही  कहते होंगे !


मुझे अब सूरज की किरण से ,
तपिश नही मिलती ,
चाँद की चांदनी से ये दिल ,
अब ठंडा नही होता !
वो जो कहते हैं मुझे ..........


मुझे अब अपनों के सायों में ,
अपनापन नही मिलता ,
जगमगाती शहरों की रातों में ,
खुशबू खवाबों की नही मिलती !
वो जो कहते हैं मुझे .........


दर्द बदन के हर हिस्से में ,
बिखरा है , मुझे और ,
 लकीर ख़ुशी की ,
मेरे हाथों  में नही मिलती !
वो जो कहते हैं मुझे ..........


भीड़ में सन्नाटा सा पसरा है ,
धुल (झूट) का है गुबार भी इस पर ,
नजर दूर तक तो जाती है  मेरी ,
मगर तस्वीर "पहचान" की ,
एक भी नही मिलती !
वो जो कहते हैं मुझे ..........


छु जो जाती हूँ दरिया ,
तो हाथ मेरा ही जलता है ,
तभी आग से खुद को ,
जलने की जरुरत  नही मिलती !
वो जो कहते हैं मुझे ..........




मुझे अब कागज - से फूलों में ,
खुशबु नही मिलती ,
शायद वो  सच ही  कहते होंगे !!! "



By : Anjali Maahil 

Jun 1, 2011

अच्छा लिख रहा होगा !

कोई कहीं तुझसे भी अच्छा लिख रहा होगा !
दुनिया के ये अल्प शब्द ,
और मेरा अथाह निराशा का कागज ,
दोनों ही अपने - अपने 
धरातल में मुझे खिंच लेते हैं ,



मानो ,
चंद दूरी तय करके ,
बढ़ते कदम फिर ठिठकते हैं ,
और लौट आते हैं इस प्रकार ,
मेरे बढ़ते कदम फिर से ,



मेरे रिक्त कागज और
 जीव(आत्मा ) से ,
कहती रही ,भावों की लेखनी मेरी ,
"दोष सिद्ध तुझमे तो हो ,
नही जाता , ये सोच कर ,
कोई  कहीं तुझसे भी अच्छा लिख रहा होगा ! "


ना पूर्ण भाव समां पायेगा ,
वो शब्द - कोष में अपने ,
ना जीव को ही गात(शरीर)दे पायेगा ,
फिर प्रश्न क्यूँ बना यहाँ ,
हार और जीत का ?"
ये तो पूरक हैं 
सांध्य और प्रात: की भांति 
फिर , दोष सिद्ध तो हो नही जाता ,
स्वयं में , ये सोच कर ,
कोई  कहीं तुझसे भी अच्छा लिख रहा होगा !


BY: Anjali Maahil
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