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Dec 28, 2011

"हम बिन पंखों के पंछी "


"हम बिन पंखों के पंछी "
उड़ते खुले आकाश में
कोई दिशा नही कोई गति नही
हम बिन पंखों के पंछी !

ना वक़्त की आंधी उड़ा सकी,
ना वक़्त की बरखा भीगा सकी ,
जो एक डाल पर बैठ गये
हम बिन पंखों के पंछी .....

ना देखि कोई डगर नई,
ना देखा कोई शहर नया ,
सूखी-हरी लताओं ( परम्पराओं ) में उलझ गये
हम बिन पंखों के पंछी .....

छोटे मोटे कीट पतंगो (बुराइयों ) के संग ,
 हमने अपने अहम को पाला ,
भूल गये अब उठना उड़ना ,
हम बिन पंखों के पंछी .....

अपनी झूठी  शान के महलों में ,
हम घुट-घुटकर रह जाते हैं ,
भूल गये "पहचान" को अपनी
हम बिन पंखों के पंछी .....

-ANJALI MAAHIL 

Dec 16, 2011

शुक्रिया ..!


अँग्रेजी साल अपने अंतिम पड़ाव पर है, तो सोच रही हूँ कुछ हिसाब किताब समेत लूँ...जान लूँ कि कितना खोया ऑर कितना पाया ..... साल की शुरुआत कुछ खास नही थी ...आते-आते या कहूँ साल के मध्य मे एक सबसे मजबूत बंधन टूट गया, उम्र का एक बड़ा हिस्सा बिताया था जिन के साथ , अब वो लोग बहुत दूर हो गए थे... कुछ उन्होने साथ छोड़ा ऑर कुछ मैंने वापसी के दरवाजे बंद कर दिए, मगर अहसास, वो तो जाता नही न कभी भी.....लंबे वक़्त तक लगा सपने मे हूँ ...मगर धीरे-धीरे सपने से सच्चाई का आभास भी हो गया...!

“ बिछड़ जाते हैं अपने तूफानो के डर से ,
हमने तो वजूद अपना अब तक संभाल  रखा है... “

अपनी इंही पंक्तियों मे खुद को समेटकर आगे बढ़ी, तो फिर लगा कि कुछ ऑर भी है जो, अब कहीं अटकने लगा है .... अब इतना भ्रम था कि आज तक समझ नहीं आता कि वो बंधन अस्तित्व मे है या वो भी कहीं छूट गया.... इस पूरे होने वाले साल मे कुछ लोग ऐसे भी थे जो हमेशा साथ रहे मेरे ... अच्छे ऑर बुरे दोनों वक़्त मे ... अब हिसाब लगा रही हूँ तो समझ आता है कि रिश्ते .... लंबे वक़्त साथ नही देते .... साथ तो बस अनुभव रहता है , आपके आखिरी पड़ाव तक..., साथ आपकी हिम्मत रहती है ...ज़िंदगी कि आखिरी जंग तक !
कविताएं लिखने का अब दिल नही करता ...जाने क्यूँ ....?शायद अब नए पन्ने पर कुछ नया लिखने का मन है .... अब ये न पूछिएगा कि क्या ?
ये तो अभी मेरे भी दिमाग मे नहीं है फिलहाल.... मगर जैसे ही मुझे पता चलेगा ,आपको भी खबर हो ही जाएगी .... फिर ज़िंदगी मे बेहद उतार-चढ़ाव चल रहे हैं, आने वाला  वक़्त तमाशे का दौर है...कुछ आप देखिएगा...कुछ हम दिखाएंगे .... चलते चलते कुछ लिख जाते हैं .... कुछ पंक्तियाँ लिखी थी .. तो सोचा बाँट ली जाएँ :-

 “ हर एक गुनहगार लगता है , हर एक मददगार  लगता है,
इस काफिरों की दुनिया मे हर कोई मिलनसार लगता है !

बेंच देते हैं रूह जिंदा इंसानियत की यहाँ , देखो! कि
मिलता है मोल, अहसास का हर, खुला बाज़ार लगता है !

लड़ते हैं हम हर रोज जंग, अपनों के सामने, अपनों के लिए,
बनाकर नफरत की दुनिया,यहाँ हर कोई सिपहसालार लगता है !

बदल लेते हैं रोज चेहरे पे चेहरे, एक नये लिबास की तरहा ,
कि बदहवासों के शहर में , हर कोई कलाकार लगता है !!

अरे ! जो कहना था वो तो भूल ही गयी ..... कहना था “शुक्रिया “
 आज का शुक्रिया उन लोगों के लिए हैं, जिन्होने मेरी नाकामयाब ज़िंदगी को कुछ वक़्त मेरे साथ बांटा, बांट रहे हैं...ऑर कुछ लोग आगे आने वाले वक़्त मे बांटेंगे...

-anjali maahil

Nov 9, 2011

जाने किसकी खुशबू आती है ??

मेरी किताब में हैं दफ़न
सुर्ख गुलाब की पंखुड़ियों से
जाने किसकी खुशबू आती है ??

कुछ अनदेखी सी अनजानी सी 
एक शक्ल  जहन में आती है  
कुछ नाम था उसका
अब भूल गयी ,
पर सोच में हूँ
जाने उस मिटे हुए अक्षर से
जाने किसकी खुशबू आती है ??

कुछ मटमैली बिखरी तस्वीरों में
एक तस्वीर निखर के आती है
कुछ रंग थे , बिखरे उलझे उसमे लगते हैं
पर सोच में हूँ
उन  रोते बिखरे रंगों से 
जाने किसकी खुशबू आती है ??

कुछ बातें थी जगवालों की ,
एक बात निकल के आती थी ,
" तुझमे तो सब तेरा है !! "
अक्सर वो सब कहते थे ,
पर सोच में हूँ ,
फिर मेरे अंतर:मन में मुझको, 
जाने किसकी खुशबू आती है ??


(माफ़ी चाहूंगी , कुछ पंक्तियों में सुधार करना पड़ा है..समय की व्यस्तता के कारण कभी कभी त्रुटी हो जाती है !!! )
-Anjali Maahil


Oct 23, 2011

शिकायत

  
ना बात करते हो , ना लौट आते हो !
सुनो! नाराज हो , क्यूँ खामोश  हो?
शिकायत है तो मुझसे कहो,
मुझे यूँ क्यूँ सताते हो ?

रह रह कर तुम्हारी बीती बातें याद आती हैं ,
वो रूठ जाना और मान भी जाना पलभर में ,
बिठाकर सामने ,मुझे ही ख़त लिखना,
अब जिन्दगी में ,उस ख़त पर लिखे ,
नाम का सहारा ही रह गया है ,
ना बात करते हो , ना लौट आते हो !
बताओ ना ! मुझे यूँ क्यूँ सताते हो ?

क्या कोरे तुम्हारे  कागज सब भर गये ?
भरे हुए वो पन्ने भी हवा संग उड़ गये ?
याद क्या तुम्हे मेरी कभी आती नही ?
तेरी यादों के दीये  सब बुझ गये ?
ना बात करते हो , ना लौट आते हो !
बताओ ना! मुझे यूँ क्यूँ सताते हो ?

रूठकर भी मान जाने का तुम तो वादा करते थे !
सागर से भी गहरे प्यार का तुम जो दावा करते थे !
अब निभाने को तुम से बार - बार मैं आग्रह करती हूँ ...तो तुम
ना बात करते हो ना लौट आते हो ,
बताओ ना ! मुझे यूँ क्यूँ सताते हो ?

मैं अब तुम्हारे  वृक्ष (परिवार) की  
एक सूखी सी डाल बन रह गयी हूँ
सूख कर भी जो चटकी नही  और  फब्ती भी नही ,
ना ही अब मुझ पर कभी यौवन  आएगा...मगर तुम
ना बात करते हो , ना लौट आते हो ,
बताओ ना ! मुझे यूँ क्यूँ सताते हो ?

ये कविता मैंने अपनी "दी" के लिए लिखी है, हालही में मेरे जीजू  की आकस्मिक 
सड़क दुर्घटना में निधन हो गया है ... बस उन्ही के दर्द समेटने की कोशिश की है ... उनके सवाल तो सब सुनते हैं ..मगर जवाब कोई नही देता ...!!!  


(मैं कुछ पारिवारिक वजहों  के कारण काफी दिन से  ब्लॉग से दूर रही थी , इस कारण मैं कुछ लोगों को उनके प्रश्न का जवाब नही दे सकी, उसके लिए माफ़ी मांगती हूँ, कोशिश करुँगी की यहाँ भी लोगों से भी संवाद बनाये रखूं ...)
-ANJALI  माहिल

(चित्र :गूगल के सौजन्य  से)



Oct 12, 2011

ख्वाहिशें पूरी हो नही सकती .....!!


ख्वाहिशें जब जानती हैं ,
पूरी हो नही सकती ,
तो ख्वाहिशें जागती क्यूँ  हैं ?
ये ख्वाहिशें मचलती क्यूँ हैं? 
सो सोकर ,
ये ख्वाहिशें उठती क्यूँ हैं ?
कर जाती हैं तनहा ,
ठंडा सा जिस्म और ,
रख जाती हैं ,
एक अंतहीन तलाश ,
आखों के कोरों में ,
क्यूँ करती हैं मेरे कागजो को स्याह ,
ख्वाहिशें जब जानती हैं , पूरी हो नही सकती ----------


ख्वाहिशें बदलती हैं रंग
श्वेत - श्याम  जिन्दगी के मेरी 
तो ख्वाहिशें नए अधूरे रंग भी
भरती क्यूँ  हैं ?
हकीकत से जुदा करती क्यूँ हैं ?
पुराने अस्पष्ट हैं , बिखरे अस्तित्व के  टुकड़े ,
मेरे दामन  से लिए ,
वो अनजान सफ़र पर चलती क्यूँ हैं ?
क्यूँ करती हैं
अनहुए आश्चर्यों का यकीन ?
ख्वाहिशें जब जानती हैं , पूरी हो नही सकती------------


ख्वाहिशें बसती  हैं आँखों में ,
एक सुन्दर  शक्ल सी लिए ,
बन-बनकर ,
ये ख्वाहिशें ही  उजडती क्यूँ हैं ?
आँखों के कोनो से मद्धम-मद्धम रिसती क्यूँ हैं ?
सब जानती हैं ये, पर्दों में नही कैद ,
आसमां की हलचलें होती ,
तब ये ख्वाहिशें उन में (आँखें ) सिमटती क्यूँ हैं ?
ये अहसास भरती क्यूँ हैं ?
छोड़ जाती हैं , खामोश चेहरे पर ,
बहते हुए हालातों के निशाँ ,
ये ख्वाहिशें जिन्दगी में ,
बे-तहाशा दौडती क्यूँ हैं ?
ख्वाहिशें जब जानती हैं ,पूरी हो नही सकती -----------

"तो ख्वाहिशें जागती क्यूँ  हैं ? "


-ANJALI MAAHIL
परदे= पलक , हलचलें= आंसू

Oct 3, 2011

खामोश क़दमों से

उठते हैं सवाल जहन में कई -
तो दूर , बहुत दूर निकल पड़ती हूँ मैं !
खामोश क़दमों से ,
आँखों में नमी और होंठों पर ,
कुछ अस्फुट शब्द लेकर...!!

मेरी सामने की दीवार पर जो एक  बिंदु है ,
जो खींचता है कई बार अकेले में मुझे ,
जब प्रश्न लेकर उस और देखती हूँ मैं  !
कभी वो मेरे करीब आता हैं ,
कभी समां लेता है दीवार में मुझको !
आकर करीब - चले जाने का ये ,
फासला अब समझने लगी हूँ मैं ! 

अब  ढूंढती  हूँ दीवार पर कई और बिंदु ,
शायद वो भी मेरे अस्तित्व के शून्य से हैं ,
वहीँ कुछ हैं उलझने मेरी , और ज्यादा उलझने को ,
और मुझे उम्मीद समाधानों की अब भी बाकि है !

उठते हैं सवाल जहन में कई -
क्यूँ बड़े वक़्त से सुकून से सोयी नही हूँ मैं ?
क्यूँ बड़े वक़्त से सुकून से रोयी नही हूँ मैं ?
मैं तो कमजोर थी , तो कैसे सब सह लिया मैंने?

उठते हैं सवाल जहन में कई -
क्यूँ तृप्ति की अभिलाषा में ,अतृप्त रहीं हूँ मैं ?
क्यूँ मुक्ति , मुक्त बंधन से मांग रही हूँ मैं ?

उठते हैं सवाल जहन में कई -
क्यूँ अब सपने  अच्छे लगते नही मुझे ?
और  किस के धरातल से , आसमां में , 
मुझे नयी  परवाज भरनी होगी ?

उठते हैं सवाल जहन में कई -
तो दूर , बहुत दूर निकल पड़ती हूँ मैं, खामोश क़दमों से -------------


अस्फुट=अस्पष्ट,  परवाज= उडान,  धरातल=जमीन

-ANJALI MAAHIL 



Sep 25, 2011

कया तुमने भी देखा है ..!!

" मैंने सपनो में  सपनो को जगते देखा है ...!! "

चंदा  मामा का नाम लिए ,
और होंठों पर मुस्कान लिए ,
मैंने लोगों को सपनो में जागते देखा है !

काली - उजली निखरी रातों में ,
आँखें खोले जज्बातों में ,
मैंने लोगों को सोते देखा है !

झूठी बनावटी नगरी में ,
छलकी (छल की ) सी एक छोटी गगरी में ,
सच की चिताओं को  यकीनन ,
मैंने लोगों पर हँसते  देखा है !

झर- निर्झर बहती आसमान की बूंदों में ,
और तीव्र वेग की धारा में ,
मैंने लोगों को रोते देखा है !

टूटी बिखरी आशाओं में
आजादी की बदली परिभाषाओं में ,
मैंने अपंग से लोगों को ,
पर्वत पर चढ़ते देखा है !

कंकरीली बंजर भूमि पर ,
आड़ी -टेड़ी रेखाओं से ,
मैंने लोगों को सोने में जुतते देखा है !

पुन्य -दायनी गंगा में ,
हाँ ! मोक्ष दायनी गंगे में ,
मैंने लोगों को पाप मिलाते देखा है !

बुख से उपजी नफरत में ,
पेट से उठती ज्वाला में ,
मैंने लोगों को मुल्क जलाते  देखा है !

जो इतिहास में थे सब छुट गये ,
और वर्तमान  में लड़ते हैं ,
मैंने उन लोगों के हाथों से , भविष्य बिगड़ते देखा है !

भ्रष्टाचार के वारों से ,
खिंची हुई तलवारों में
मैंने लोगों को , लोगों में , एक अलख जगाते देखा है !


-ANJALI MAAHIL 

जीवन यात्रा - एक शून्य

18 Sept. 2011


आज  बहुत लंबे वक्त के बाद घर से बाहर निकली हूँ .... महसूस हो रहा है जैसे स्कूल का पहला दिन हो , 
जहाँ ना कोई अपना है, ना ही आँखों में कोई सपना है ...कुछ जानने की तलाश है बस ...
एक झिझक के साथ !


घर से मेट्रो स्टेशन  पहुंची ...कई बार जिस जगह आ जा चुकी हूँ , आज वही मंजिल अनजानी लग रही है , क्यूँ ...? रह रह कर यह मुझे मेरा मेट्रो का पहला सफर लग रहा है !


प्लेटफोर्म पर आकर कुछ वक्त इंतज़ार के बाद , मैंने अपना ये सफर शुरू किया ! इस बीच में लगातार ऋतू से बात करती रही , पता नही क्यूँ डर का सामना करने से बच रही थी ! मेट्रो में सवार होते ही लोगों के नजर मेरी ओर घूमी  और अंदर तक मेरी सांसे सिमटती चली गयी  , अब नेटवर्क जा चुका है , अजीब घबराहट , एक अंजना सा डर  " मैं खो गयी तो ...?"



Central  Secretariat metro पर  जाना  है , एक  बार  फिर  मेट्रो  बदली ,  और सबसे पहले कोच में जाकर बैठ गयी ! महिला आरक्षित कोच ! बेहद चहलपहल ----- हर बार की तरहा , Working Women s.... College Going Girls का  Group  .... तमाम तरह की बातें , बेहद शोर गुल के माहौल में भी मुझे अपनी तन्हाई के कारण कुछ सुनाई ही नही दे  रहा था !! बाहर देखती तो  किसी पुरानी फिरं की तरहा यादें REWIND हो जाती ...
पहले तो  जिंदगी इतनी बोझिल  तो कभी नही थी .... हर बात पर मुस्कुराती हुई " मैं " , अब मुस्कुराना भूल जाती हूँ .!! 


एक बार फिर फोन उठती हूँ , देखती हूँ , कुछ पुराने Messages -------------- वो सवाल ....वो जवाब , आज भी वैसे के वैसे ही हैं ...!!! 




अब जिन्दगी में अपने हालात लिखने  से डर नही लगता , प्रतिक्रियां और मजबूत कर देती हैं ....कमजोर तो पहले भी नही थी ....मगर अब  बस पहला कदम उठाने से डर लगने लगा है , किस  मोड  पर जाने कों छुट जाये !!!

-Anjali Maahil 

Sep 18, 2011

तुमसे जुदा होकर !!

कभी गमो की दलदल में हम भी डूबे थे ,
अब निशां पड़ेंगे , सुखों की सूखी जमीं पर ,
तुमसे जुदा होकर !!

कभी मुद्तों -मुद्तों भीगे आँखों की बारिश में हम भी थे  
अब मुस्कुराहटों का दौर है ,
तुमसे जुदा होकर !!

कभी हम राह से भटके  , तो कभी चलना भी भूले थे,
अब संग चलने लगी हैं मंजिले ,
तुमसे जुदा होकर !!

कभी तेरे पाँव में चाँद , तो कभी तारे भी गिरे थे ,
अब विदा तहां - भिक्षुक  रात हुई ,
तुमसे जुदा होकर !!

कभी शामिल हुए , तो कभी खुद को खो दिया तुझमे ,
अब लेने लगी है " पहचान " एक शक्ल ,
तुमसे जुदा होकर !!

कभी जिंदगी जीते थे , हर तेरी याद में " साहिब! " ,
अब किस्तों में सुकून से कटती हैं ये जिंदगी ,
तुमसे जुदा होकर !!

कभी जंगले पर तेरे, निगाह दिन-ओं- रात रखते थे ,
अब टांग दिया हैं पर्दा,
तुमसे जुदा होकर !!

कल उस युग में जीते थे , कि हासिल कुछ नही आया ,
अब सब सीख लिया हमने,
तुमसे जुदा होकर !!

-ANJALI MAAHIL 

जंगले = खिडकी 

Sep 15, 2011

मेरे दोष .....

जाने कैसे , मेरे सभी दोष दिख जाते हैं उनको .
मेरी एक मुलाकात में ?
जाने कैसे , छुपा लेते हैं अपनी दक्ष प्रतिभा ....
 वो अपनी एक मुस्कान में ?

वही लोग थे वो,
जिन्होंने ....
मेरे तन की लम्बाई से ,
आँखों की गहराई  ,
और ,मेरी आँखों की गहराई से ,
मेरे मन की ऊंचाई मापी |


वही लोग थे वो,
जिन्होंने ..
मेरे लबों की ख़ामोशी से ,
मुझे बेवकूफ समझा ,
और ,मेरी इसी बेवकूफी से ,
मेरे ज्ञान की सीमा मापी |


वही लोग थे वो,
जिन्होंने ..
मेरे गिरते आंसुओं से ,
मुझे कमजोर समझा ,
और मेरी आँखों की कमजोरी से ,
मेरे होंसलो की दूरी मापी |

बहुत खुश हैं वो ये सोच कर -
"अंदाजों के इन्ही आधारों पर टिकी मेरी हस्ती सारी ..."
जाने कैसे .....मेरे सभी दोष दिख जाते हैं उनको ,
मेरी एक मुलाकात में ?


-ANJALI MAAHIL 


Sep 12, 2011

एक प्रयोग ....

संवेदनाएं लुप्त हो गयी  ......!

गारे के
कच्चे मकां पर
गिरती आसमान से
नीरद और अभ्र की बुँदे
घर मेरा गलाती रही
जिस्म मेरा जलाती  रही
देख बाढ़  का ये मंजर 
शहरों में छापने संदेसे अपने अपने 
पतंग की भांति लोग रवाना हो गए 
और मैं  दहशत से स्तब्ध 
शाम की भांति 
बहते घरोंदे देखता रहा 
रात के अंतिम पहर तक 
ऐसे जैसे वेदनाएं विलुप्त  हो गयी 
संवेदनाएं लुप्त हो गयी ...!

किसी राहगीर ने 
बीच रस्ते लथपथ रक्त्तंजित 
कराहती ध्वनि  संग 
जिस्म को गिरे पाया 
नजर चारों और दौड़ गयी यकायक
उसने साँस खींची और तेज कदमो से 
कहीं ओझल हो गया 
अनगिनत क़दमों की चाप सुनती  
धीरे धीरे वो आखिरी बूंद भी निकल 
तेज कदमो से कहीं ओझल हो गयी 
ऐसे जैसे वेदनाएं विलुप्त  हो गयी 
संवेदनाएं लुप्त हो गयी ...!

-ANJALI MAAHIL 

Sep 9, 2011

मेरा शहर, अब लगता नही ...

" आप , मैं और हम सभी ...जानते हैं ....कि परिवर्तन तो होते हैं , और होते रहेंगे ...नियम है नियति  का ..! मगर कुछ बदलाव फिर हमे इतना क्यूँ अखरते हैं...? असहज  की स्तिथि में  क्यूँ  ला देते हैं  हमे....क्यूँ  ...? "


....... जब ,
बड़े दिनों के बाद मेरा अपने ही शहर को जाना हुआ ,
जो अपना तो था ..पर अपना-सा ना लगा ,
अजीब बड़ा माहौल था ,परायों सा ,
कोई खिड़की से झांके , कोई दरवाजे के पास से ,
राम - रहीम का कोई भी ,
लफ्ज कानो में गूंजता ना था ... जब , 
बड़े दिनों के बाद मेरा अपने ही शहर को जाना हुआ !



सभी  को अजीब सी  कमाने  की होड़ थी ,
उस बिखरी  सी शाखों और उधड़ी हुई छाल के ,
बूढ़े से वृक्ष को देखकर ,
याद आ रही थी छन-छन कर आती धुप की ,
और बिखरी हुई गहरी शीतल छांव की .....,
बड़ी बड़ी इमारतों के बीच कोई कोना ,
देर तक मैं खोजता रहा ...... जब ,
बड़े दिनों के बाद मेरा अपने ही शहर को जाना हुआ !




संबोधनो की नगरी में ... वो बचपन का नाम मैं खोजता रहा ,
जो था संग मेरे... मेरे लिए  एक आवरण की भांति  ,
मगर अब वो भी नही अपना लगता .... कहीं नही दिखता  !
जब ....
बड़े दिनों के बाद मेरा अपने ही शहर को जाना हुआ !!


 -Anjali Maahil

Sep 7, 2011

"मुलाकात "



एक छोटी सी मुलाकात हुई ,
कुछ जान हुई ,पहचान हुई ,
कुछ अते -पते की बात हुई ,
फिर कब जाने ,
सुबह की रात हुई ,
ऐसी छोटी -मोटी बात हुई , 
एक छोटी सी मुलाकात हुई !!

थोड़ी -थोड़ी बात बढ़ी ,
ये नजर लगी अलसाई सी ,
कुछ शाम भी थी गहराई सी ,
हाथों पर हाथों की सिहरन से,
बात दबी जुबान पर आयी थी ,
कुछ छोटी -छोटी बात हुईं , 
एक छोटी सी मुलाकात हुई !!

कुछ गिला उसने मुझसे किया ,
कुछ शिकवा मैं भी लेकर आयी थी , 
कुछ छोटी -छोटी बात हुईं ,
एक छोटी सी मुलाकात हुई !!

-ANJALI MAAHIL 

Sep 4, 2011

कलम : मैं

" हम भी बनेंगे कलम "

उतारेंगे अहसासों को , जज्बातों को
हर मोड़ पर , ठहरे हालातों को , 
हम भी जब बनेंगे कलम !!

रखेंगे अपनी सोच सभी ,
पक्ष -विपक्ष और विचारों को ,
फिर बदले नए हालातों को ,
हम भी जब बनेंगे कलम !!

लिखेंगे "लहरें" - समंदर की ,
संग कश्ती और किनारों को ,
टकराकर टूटी चट्टानों को ,
हम भी जब बनेंगे कलम !!

लिखेंगे बसंत की चंचल बहारों को ,
सावन - घटा और शीत दबी आवाजों को ,
मरू के तपते इंसानों को ,
हम भी जब बनेंगे कलम !!

लिखेंगे अपने शब्दकोश नए ,
संग रचनाओ और भाषाओँ को,
देंगे स्वरूप  नया " परिभाषाओं " को
हम भी जब बनेंगे कलम !!



लहरें =विचार , समंदर =आत्मा , कश्ती =राहें , मार्ग , किनारे =मंजिल , चट्टानों =रूढ़ियाँ 
बसंत =ख़ुशी का समय, 
सावन-घटा =दुःख का समय ,
शीत =वो वक्त जब जीवन में शून्य का अधिपत्य हो जाएँ , मरू =मुश्किलें 

-ANJALI MAAHIL 

Aug 27, 2011

"मेरा आशियाना तो है ..!"

"मेरा है....!" 
ये सोचकर आशियाने के ,
नाजुक  शीशे तोड़ गया कोई ,
नही है मुझे , कोई मलाल
ये सोचकर , कि -
" खंडर ही सही , आज भी , 
मेरा आशियाना तो है ..!"

बेशक ,
अब वो गर्म अहसास ,
इसमें नही होता,
बेरोक - टोक टकराती हैं ,
सर्द हवाएं अब मुझसे ,
सुकून है तो बस उस ,
दीवार के एक सहारे का ,
जो आज भी मजबूत है ,
शायद वो भी मेरी ही तरहा है ,
नही है मुझे , कोई  मलाल ,
ये सोचकर , कि - .................
मेरा आशियाना तो है ..!"



बेशक ,
ये बंद जो है खिडकी ,
जहाँ से धूप आती थी ,
हवा के साथ साथ
बहने वाली बारिश ,
अब मुझको बताती है,
इसका शीशा टूटा सा है ,
सुकून है तो उस ,
चटके-अधूरे से शीशे का ,
जो टूटकर कर भी बिखरा नही ,
शायद  वो भी मेरी ही तरहा है ,
नही है मुझे , कोई  मलाल ,
ये सोचकर , कि - .................
मेरा आशियाना तो है ..!"




बेशक ,
अब इसके पते की "पहचान"
अधूरी  लगती हो तुम्हे ,
भले , अब भूले-भटके से लोगों की ,
जुबान पर इसका नाम आता हो ,
जहाँ इंटों की तरहा ,
बिखरे हों पल मेरे,
सुकून है तो उस ,
अहसास का , जो छुटकर भी बिखरा नही ,
सिमट - कर , छुपा बैठा  है कहीं ,
शायद  वो भी मेरी ही तरहा है ,
इसलिए नही है मुझे , कोई भी मलाल ,
ये सोचकर , कि - .................
" खंडर ही सही , आज भी , 
मेरा आशियाना तो है ..!"


-ANJALI  MAAHIL


Aug 22, 2011

कभी मैं खुद ...



" कभी मेरे शब्द शरारत करते हैं और कभी मैं खुद ......"

बहते हैं जब मेरे अधूरे ख्वाब ,
मेरी आँखों से कतरा - कतरा ,
कभी बिखरकर टूट जाते हैं ,
कभी मैं खुद उन्हें , पोंछ लेती हूँ !

आती है जब जिंदगी में मुश्किलें ,
नदी के तीव्र बहाव की तरहा,
तब उड जाते हैं , बह जाते हैं ,
सहारे मेरे , पुराने बांधो की तरहा ,
कभी दूर बहे निकल जाते हैं ,
कभी मैं खुद उन्हें , छोड़ देती हूँ !

मिलती है जब नयी रौशनी ,
फिर एक नए जन्म की  तरहा ,
तब लगता है पुराना सब ,
सफ़ेद और शांत , नए की तरहा ,
कभी आँखें चौंध जाती हैं ,
कभी मैं खुद उन्हें , मूंद लेती हूँ !


खिलखिलाते हैं शब्द मेरे,
जब कभी बालक की तरहा ,
छिपा होता है दर्द कविताओं में ,
कागज की तरहा ,
कभी शब्द छिटक-कर बिखर जाते हैं ,
कभी मैं खुद उन्हें ,कागज में बांध देती हूँ !

-Anjali Maahil

Aug 18, 2011

परिचय

मैं ममता ...जिसे आप सभी अंजलि माहिल के नाम से जानते हैं .....
ये नाम मुझे बेहद पसंद है, इसलिए इस नाम से लिखना शुरू किया ,,,,वैसे भी मैं मानती हूँ कि जिंदगी में "इंसान कौन ?  से ज्यादा "इंसान कया है !" मायने रखता है !

जीवन में दो से चार शब्द  कब चार से आठ पंक्तियों की कविता बन गए , पता ही नही  चला !
कभी सोचा भी नही था , कि - लेखन भी कभी मेरे परिचय में शामिल होगा !

स्कूल की कापी - किताबों के पीछे अपनी लिखी हुई  या
किसी और की लिखी कुछ पसंदीदा पंक्तियाँ लिखना ही काम था मेरा |
पहली कविता याद करने  पर  भी याद नही आती | हालाँकि अपनी शुरूआती कविताओं में से एक कविता यहाँ प्रकाशित कर चुकी हूँ- "तुम्ही से हम " नाम से |

स्नातक की शिक्षा के दौरान  मैंने एक कविता और लिखी थी , किसी व्यक्ति विशेष के  लिए -विजय कुमार बिधूड़ी .... जो आज एक प्रशासनिक आधिकारी हैं !  मेरे परिवार साथ ही उनके परिवार को भी बहुत अच्छी लगी थी वो कविता , जल्द ही उसे भी "भेंट" नाम से यहाँ प्रकाशित करुँगी |
लिखना शुरू करने के पीछे बहुत वजह हैं , मगर अच्छा लिखने के लिए दो ही वजह हैं मेरे पास ...
एक मेरे मित्र जो खुद बहुत अच्छा लिखते हैं वो ..,
और दूसरे मेरे वो मित्र जो खुद अच्छा लिखने के साथ साथ मुझे हतोत्साहित करते रहे ......!

जब पहली बार फेसबुक पर अपनी कवितायेँ पेश कि तो काफी प्रशंसा मिली , अच्छा लगा  !
मगर फिर सोचा  , कि कहीं अपनी सभी कविताओं को सहेज कर रख दूँ , डायरी के पन्ने कब तक साथ देंगे .....कभी तो भरेंगे ही ......!

तो मिला सहारा  ब्लॉग का .....यहाँ आई तो कुछ दिनों तक कुछ समझ नही आया , धीरे -धीरे  देख-देख कर हमने भी अपने हाथ खोलने शुरू कर दिए , यहाँ सबसे पहली मुलाकात मेरी जिस ब्लॉग से हुई ...वो था पाठशाला ..... मेरे बेहद करीबी मित्र का ब्लॉग ..... फिर यशवंत माथुर जी का : "जो मेरा मन कहे"...और कारवां बढ़ता गया , कभी सोचा भी  नही था कि मेरी कवितायेँ भी पसंद की  जाएँगी यहाँ  ...... लगता था ज्यादा दिन नही रह पाऊँगी यहाँ  मगर आज ..........65 लोग साथ चल रहे हैं ... साथ दे रहे हैं !


" कभी ना असफल लिखा , ना कामयाब लिखा ,
पन्ना हूँ जो मैं एक किताब का ,
बस , उस पन्ने का एक भाग लिखा ......."

आप सभी के साथ और शुभकामनाओं के लिए .....बहुत बहुत धन्यवाद !

-अंजलि माहिल 

Aug 15, 2011

Indian Soldiers---"TRIBUTE"

15 अगस्त 1947 ....देश की आजादी का दिन..... जिस दिन के लिए जाने कितने भारतवासियों ने अपना जीवन कुर्बान कर दिया ...! और उसके बाद भी क़ुरबानी का ये
सिलसिला थमा नही ...... आज भी सरहदों पर हमारे सैनिक अपने देश की सेवा में अपनी जान देने से पीछे नही हटते...!
आज उन्ही शहीदों को एक छोटी सी श्रधांजलि ...... , और उनके परिवारों को को एक छोटा
 सा ला .......
" भारत हमको जान से प्यारा है..सबसे न्यारा गुलिस्ताँ हमारा है...सदियों से भारत भूमि दुनिया की शान है...भारत माँ की रक्षा में जीवन कुर्बान है ...! "






 मैं सरहद पर जो बैठा हूँ, 
 मजबूरी में ही तो बैठा हूँ , 
 छोड़ के कैसे सब आ जाऊं ?
 बता ....सब छोड़ के कैसे आ जाऊं ?




 हाँ , 
 याद मुझको भी तेरी आती है , 
और धीरे - धीरे आती है ,
जाने क्यूँ , रोने का भी वक़्त नही ?
मैं अब सरहद पर जो बैठा हूँ !


चढ़ता है जब नभ पे सूरज , 
india_lc.gif (42880 bytes)तेरे माथे की बिंदी लगता  है ,
रेत पर बैठी पवन चले तो ,
तेरी पायल लगती है , 
फिर एक गोली चलती है 
और तू गायब हो जाती है ,
एक आह सी दिल में उठती है 
मैं अब सरहद पर जो बैठा हूँ !
छोड़ के कैसे ..........आ जाऊं ?

रात की ठंडी - ठंडी लहरे ,
मुझको सिहरन देती हैं ,
रखकर हाथ में अपने  सर पर ,
जब हँसी को  तेरी सुनता हूँ ,
तब एक आंसू गिरता है ,
और मुझको गीला करता है ,
तब फिर एक गोली चलती है
और तू गायब हो जाती है ,
एक आह सी दिल में उठती है 

मैं अब सरहद पर जो बैठा हूँ !
छोड़ के कैसे ..........आ जाऊं ?



एक रोज लौट के आऊंगा ,
तीन रंग में मैं घिर जाऊंगा ,
सुन,
उस रोज़ तू राहें मत तकना ,
और मुझको गीला(आंसू ) मत करना !


जानु (जानता)  हूँ मैं , मेरे ख़त की राहें
तेरी आखें तकती हैं ......
पर मुझ पर मेरी माँ का ऋण है
सब छोड़ के कैसे आ जाऊं  ?
बता ......सब छोड़ के कैसे आ जाऊं ?

एक वादा करते जाता हूँ .
ख़त आधा छोड़े जाता हूँ ,
एक रोज़ मैं आकर ,
पूरा कर दूंगा !
फिर एक गोली चलती है ,
और सब गायब हो जाता है ,


मैं अब तक सरहद पर जो बैठा था ,
मज़बूरी  में ही तो बैठा था ...!


"आज लौट के घर को आऊंगा .....!"

Pls listen

याद में  उनकी ......एक दीप तो जला ही दो ......  
65वे स्वंतन्त्रता दिवस  की आप सभी को शुभकामनायें ....... 

-अंजलि माहिल 
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