वो कच्ची सड़क आज भी याद आती है ,
जहाँ गिर भी जाऊं तो चोट नही लगती |
जहाँ भी पैर रखती थी वहां ये मिल ही जाती थी ,
पाना मुश्किल नही था ,
पर जाने क्यूँ अब नामुनकिन हो गया |
ये मेरी बचपन की कच्ची सी सड़क ,
बारिश मे टिक नही पाती थी ,
एक नए सिरे से शुरुआत करती थी मैं ,
रोज़ रोज़ इसी पर जब चलती थी मैं |
वो मेरे बचपन की भांति कोमल थी ,
वो एक ही आकार में कैद न रहती, चंचल सी थी ,
कभी बाएं तो कभी दायें ,अटखेलियाँ करती ,
शहरों की अक्सर बातें करती थी मैं,
रोज़ रोज़ उसी पर जब चलती थी मैं |
BY: Anjali Maahil
सच कहूँ...इस कच्ची सड़क को हम आज भी महसूस करते हैं ...अपने मन में .
ReplyDeleteशुरुआत ही उस सड़क से होती है जिसकी लम्बाई उम्र के बढ़ने और जीवन के घटने के साथ साथ बढती ही जाती है...न जाने कितनी पग डंडियों पर हम चल चुके होते हैं...वक़्त है कि कुछ एहसास होने नहीं देता.
मेरे मन को छू गयी आपकी यह कविता.
apne shi kaha ki waqt ahsas nhi hone deta
ReplyDeletethank u yashwant ji