देखो तुम उस कागज को ,जिस पर ,
जाने कितने शब्द -कोष फैलाये थे ,
पर धूप में रखकर देखूं तो ,
"क्यूँ ये कागज भीगा-भीगा सा लगता है?"
जब दुःख दर्द की बरसातों से ,
नींव में पानी भर आया,
अंजुली भर मिटटी खुशियों की ,
नींव को तभी सुखाया था ,
एक प्रश्न फिर भी -
अनसुलझा है ,
अनसुलझा है ,
"क्यूँ ये कागज भीगा-भीगा सा लगता है?"
कठिन परिश्रम करते -करते ,
माथे पर बल बन आये ,
धूप पड़ी और हालातों की ,
आशा की छाँव इसे बिठाया था ,
एक प्रश्न फिर भी अनसुलझा है
"क्यूँ ये कागज भीगा-भीगा सा लगता है?"
BY: Anjali Maahil
दिल को छू गयी आपकी यह कविता.
ReplyDeleteहोली की हार्दिक शुभकामनाएं.
बहुत भावपूर्ण सुन्दर रचना....
ReplyDelete(word verification हटा दें तो कमेन्ट देने में सुविधा रहेगी)
आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा , आप हमारे ब्लॉग पर भी आयें. यदि हमारा प्रयास आपको पसंद आये तो "फालोवर" बनकर हमारा उत्साहवर्धन अवश्य करें. साथ ही अपने अमूल्य सुझावों से हमें अवगत भी कराएँ, ताकि इस मंच को हम नयी दिशा दे सकें. धन्यवाद . आपकी प्रतीक्षा में ....
ReplyDeleteभारतीय ब्लॉग लेखक मंच
डंके की चोट पर
संवेदनशील अभिव्यक्ति..... बहुत सुंदर
ReplyDeleteमुझे आपका लेखन अच्छा लगा दिल से निकली रचनाएं हैं बधाई
ReplyDeleteमुझे आपकी रचनाएं अच्छी लगी
ReplyDeleteखंडहर में जुगनू ...कागज़ भीगा सा ..
अच्छे प्रतीक हैं
बहुत बहुत शुक्रिया आपका यशवंत जी और डॉ मोनिका जी |
ReplyDeleteवंदना जी आपको मेरी कविता पसंद आयी, इसलिए आपका भी बहुत धन्यवाद |