मैं जो एक पत्थर ही तो हूँ...
लोग मुझे तराशते रहे ......
मैं हर पत्थर की तरह खुदी से दूर होता रहा ..
मैं जो टूट कर भी बदला नही ...
मैं जो बिखर कर भी बिखरा नही ...
पत्थर ही तो रहा ...हर टुकड़े मे मैं ..
वो मुझे शकल देते रहे , चोट करते गए ..
और हर चोट पर मैं ...मुझसे ही खफा होता रहा ..
वो मेरे आसुओं को झरना कहते रहे ..
और मैं उनमे ही गंगा- जल सा पवित्र होता रहा ..
तराशते-तराशते मुझे शकल खुदा सी मिल गयी ..
मुझे अब लोगो ने आदर से छुआ ...
फूलों की बारिश भी की ...
इस दुनियादारी की बातों में ..ना जाने क्यूँ ...कैसे ..?
मैं अपने ही खुदा से दूर होता रहा...
खुले आसमान से अब दीवारों में कैद कर गए वो मुझ को
मैं अब अपनी ही पहचान को खोता रहा
कभी पैरों के न्हीचे कुचला मुझको
कभी फूलों में खिलाया गया
कभी हाथों में उछाला मुझको
कभी चंदन- तिलक लगाया गया
इक पत्थर का..नए पत्थर में सर्जन (जन्म) होता रहा ....होता रहा
परिवर्तन ही तो था ....तो ये परिवर्तन होता रहा.....होता रहा ..!
पत्थर का जीवन ऐसा ही होता है।
ReplyDelete-------
स्वतन्त्रता दिवस की शुभ कामनाएँ।
कल 17/08/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
बहुत अच्छी कविता......
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteविचारणीय प्रस्तुति ..
ReplyDeleteपत्थर बदला या हमारा नजरिया.....
ReplyDeleteऐ खुदा तू ही कुछ बोल....
कभी फूलों में खिलाया गया
ReplyDeleteकभी हाथों में उछाला मुझको
कभी चंदन- तिलक लगाया गया
बहुत खूबसूरती से एक बेजान पत्थर में भी जान डालती सुन्दर रचना |