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Sep 12, 2011

एक प्रयोग ....

संवेदनाएं लुप्त हो गयी  ......!

गारे के
कच्चे मकां पर
गिरती आसमान से
नीरद और अभ्र की बुँदे
घर मेरा गलाती रही
जिस्म मेरा जलाती  रही
देख बाढ़  का ये मंजर 
शहरों में छापने संदेसे अपने अपने 
पतंग की भांति लोग रवाना हो गए 
और मैं  दहशत से स्तब्ध 
शाम की भांति 
बहते घरोंदे देखता रहा 
रात के अंतिम पहर तक 
ऐसे जैसे वेदनाएं विलुप्त  हो गयी 
संवेदनाएं लुप्त हो गयी ...!

किसी राहगीर ने 
बीच रस्ते लथपथ रक्त्तंजित 
कराहती ध्वनि  संग 
जिस्म को गिरे पाया 
नजर चारों और दौड़ गयी यकायक
उसने साँस खींची और तेज कदमो से 
कहीं ओझल हो गया 
अनगिनत क़दमों की चाप सुनती  
धीरे धीरे वो आखिरी बूंद भी निकल 
तेज कदमो से कहीं ओझल हो गयी 
ऐसे जैसे वेदनाएं विलुप्त  हो गयी 
संवेदनाएं लुप्त हो गयी ...!

-ANJALI MAAHIL 

10 comments:

  1. गहन ...बहुत मर्मस्पर्शी ....खो गया मन

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  2. behad marmasparshi .......aaj samvednayein bachi hi kahan hain.

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  3. बहुत बढ़िया लिखा है आपने।

    सादर

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  4. आपके लिखने का अंदाज़ आपको औरों से अलग खड़ा करता है ..........नज़्म का जो रूप आपने दिया आपके लिखे में कहीं-कहीं 'हीर'' जी वाली रवानगी दिखती है ............ऐसे ही लिखते रहे........शुभकामनायें आपको|

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  5. बहुत ही सुन्दर कविता शुभकामनाओ सहित

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  6. अंजलि जी, आपकी कविता मन को बांधती है,बैचेन करती है साथ मै एक सवाल छोड जाती है सोचने के लिए कि आखिर इतनी संवेदनहीनता किस लिए...!
    डॉ.अजीत

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  7. आपकी कविता ...आँखे नम कर गई

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  8. खूबसूरत रचना।
    दिल में गहरे उतरते शब्‍द।

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  9. कल 14/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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