संवेदनाएं लुप्त हो गयी ......!
गारे के
कच्चे मकां पर
गिरती आसमान से
नीरद और अभ्र की बुँदे
घर मेरा गलाती रही
जिस्म मेरा जलाती रही
गारे के
कच्चे मकां पर
गिरती आसमान से
नीरद और अभ्र की बुँदे
घर मेरा गलाती रही
जिस्म मेरा जलाती रही
देख बाढ़ का ये मंजर
शहरों में छापने संदेसे अपने अपने
पतंग की भांति लोग रवाना हो गए
और मैं दहशत से स्तब्ध
शाम की भांति
बहते घरोंदे देखता रहा
रात के अंतिम पहर तक
ऐसे जैसे वेदनाएं विलुप्त हो गयी
संवेदनाएं लुप्त हो गयी ...!
किसी राहगीर ने
बीच रस्ते लथपथ रक्त्तंजित
कराहती ध्वनि संग
जिस्म को गिरे पाया
नजर चारों और दौड़ गयी यकायक
उसने साँस खींची और तेज कदमो से
कहीं ओझल हो गया
अनगिनत क़दमों की चाप सुनती
धीरे धीरे वो आखिरी बूंद भी निकल
तेज कदमो से कहीं ओझल हो गयी
ऐसे जैसे वेदनाएं विलुप्त हो गयी
संवेदनाएं लुप्त हो गयी ...!
-ANJALI MAAHIL
गहन ...बहुत मर्मस्पर्शी ....खो गया मन
ReplyDeletebehad marmasparshi .......aaj samvednayein bachi hi kahan hain.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा है आपने।
ReplyDeleteसादर
खुबसूरत....
ReplyDeleteआपके लिखने का अंदाज़ आपको औरों से अलग खड़ा करता है ..........नज़्म का जो रूप आपने दिया आपके लिखे में कहीं-कहीं 'हीर'' जी वाली रवानगी दिखती है ............ऐसे ही लिखते रहे........शुभकामनायें आपको|
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर कविता शुभकामनाओ सहित
ReplyDeleteअंजलि जी, आपकी कविता मन को बांधती है,बैचेन करती है साथ मै एक सवाल छोड जाती है सोचने के लिए कि आखिर इतनी संवेदनहीनता किस लिए...!
ReplyDeleteडॉ.अजीत
आपकी कविता ...आँखे नम कर गई
ReplyDeleteखूबसूरत रचना।
ReplyDeleteदिल में गहरे उतरते शब्द।
कल 14/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!